एक जंगल था. बहुत बड़ा. बहुत प्राणी रहते थे उसमें. एक लोमड़ी भी थी. लोमड़ी यूँ तो बड़ी अच्छी थी. बस वह चाहती थी सब उसकी तरह 'अच्छे' बनें. वह जब कभी किसी से मिलती तब सलाह देती कि उन्हें क्या और कैसे करना चाहिए. शाम को जब सारे प्राणी थके हारे कुछ पल के लिए इकट्ठे बैठते और जंगल में हो रही गतिविधियों पर चर्चा करते तब लोमड़ी भी आकर अपना अभिप्राय देती और उन सब के लिए बुरा बोलती जो उसके हिसाब से 'अच्छे' नहीं थे. मगर उसके आते ही कुछ समय बाद सब बहाना बनाकर चले जाते.
लोमड़ी अंधी या बेवकूफ नहीं थी. उसे दुख होता कि जो हाथी रात तक कबड्डी खेलता वह कैसे बहाने बना कर चल देता. खरगोश जो देर तक ताश खेलता वह भी बोल देता उसे नींद आ रही और चला जाता. नही, लोमड़ी न अंधी थी न बेवकूफ. और नहीं तो बातूनी कछुई. वह सब देख रही थी. वह लोमड़ी के पास गई और बोली "चलो कल हम वन-भोजन के लिए चलते हैं."
"वन-भोजन?" लोमड़ी ने आश्चर्य से पूछा.
"ओह हो! आधुनिक लोग जिसे पिकनिक कहते हैं. कल मैं खाना लेकर आऊंगी. तुम मुझे घर के बाहर मिलना. हम वहीं से चल देंगे." यह कह कर बातूनी कछुई वहाँ से चल दी. उसे बहुतों से बहुत सारी बातें जो करनी थी.
अगले दिन लोमड़ी कछुई के घर गई. कछुई अपने साथ स्वादिष्ट व्यंजन लेकर लोमड़ी को तालाब किनारे ले गई. स्थीर निश्चल पानी के कारण बहुत दुर्गंध फैली हुई थी. कुछ प्राणियो के शव भी थे. फूल तो नहीं, बस कांटेदार झाड़ियाँ थी. लोमड़ी ने नाक के आगे हाथ रख कर कछुई की तरफ देखा. वह गुनगुनाती हुई कपड़ा बिछा रही थी और उस पर खाना रखने लगी.
लोमड़ी गुस्से में बोली "बुद्धिहीन प्राणी! यह भी कोई जगह है ऐसे स्वादिष्ट भोजन खाने की? मैं यहाँ एक पल नहीं ठहर सकती!"
कछुई ने बड़ी मासूमियत से पूछा "क्यों? तुमसे भी दुर्गंध नहीं सहन होती?"
~ शीतल सोनी
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